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बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन
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एक ग़ज़ल 162
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन
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एक ग़ज़ल 162
इक क़लम का सफ़र, उम्र भर का सफ़र,
यूँ ही चलता रहे, बेधड़क हो निडर
बात ज़ुल्मात से जिनको लड़ने की थी
आ गए बेच कर वो नसीब-ए-सहर
जो कहूँ मैं, वो कह,जो सुनाऊँ वो सुन
या क़लम बेच दे, या ज़ुबाँ बन्द कर
उँगलियाँ ग़ैर पर तुम उठाते तो हो
अपने अन्दर न देखा, कभी झाँक कर
तेरी ग़ैरत है ज़िन्दा तो ज़िन्दा है तू
ज़र्ब आने न दे अपनी दस्तार पर
झूठ ही झूठ की है ख़बर चारसू
पूछता कौन है अब कि सच है किधर?
एक उम्मीद बाक़ी है ’आनन’ अभी
तेरे नग़्मों का होगा कभी तो असर ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ -
ज़ुल्मात से = अँधेरों से
सहर = सुबह
दस्तार पर = पगड़ी पर, इज्जत पर
चारसू = चारो तरफ़
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