ह्र-ए-हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़
1222---------1222-----1222-------122मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन--फ़ऊलुन
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रँगा चेहरा है उसका, हाथ कीचड़ में सना है
उसे क्या और करना, दूसरो पर फ़ेंकना है
वो अपने झूठ को भी बेचता है सच बता कर
चुनावी दौर में बस झूठ का बादल घना है
अकेला ही खड़ा है जंग के मैदान में जो
हज़ारों तीर का हर रोज़ करता सामना है
नज़र नापाक किसकी लग गई मेरे चमन को
बचाएँ किस तरह इसको, सभी को सोचना है
जुबाँ ऐसी नहीं थी आप की पहले कभी तो
अदब से बोलना भी क्या चुनावों में मना है ?
उन्हे फ़ुर्सत कहाँ है जो कि सुनते हाल मेरा
उन्हें तो "चोर-चौकीदार" ही बस खेलना है
नहीं करता है कोई बात खुल कर अब तो ’आनन’
जमी है धूल सब के आइनों पर ,पोछना है
-आनन्द पाठक-
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