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फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुनबह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
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एक ग़ज़ल : आदमी का कोई अब---
आदमी का कोई अब भरोसा नहीं
वह कहाँ तक गिरेगा ये सोचा नहीं
’रामनामी’ भले ओढ़ कर घूमता
कौन कहता है देगा वो धोखा नहीं
प्यार की रोशनी से वो महरूम है
खोलता अपना दर या दरीचा नहीं
उनके वादें है कुछ और उस्लूब कुछ
यह सियासी शगल है अनोखा नहीं
या तो सर दे झुका या तो सर ले कटा
उनका फ़रमान शाही सुना या नहीं ?
मुठ्ठियाँ इन्क़लाबी उठीं जब कभी
ताज सबके मिले ख़ाक में क्या नहीं ?
जुल्म पर आज ’आनन’ अगर चुप रहा
फिर कोई तेरे हक़ में उठेगा नहीं
-आनन्द.पाठक--
उस्लूब = तर्ज-ए-अमल, आचरण
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