मंगलवार, 30 मार्च 2021

ग़ज़ल 151

 ह्र  मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़

मफ़ऊलु---फ़ाइलातु----मफ़ाईलु----फ़ाइलुन
221   -----2121-------1221-------212
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आई इधर ख़बर नई कल हुक्मरान से ,
"टी0वी0 पे जो दिखा रहे हैं देख ध्यान से "।

सच बोलना मना है, सियासत का हुक्म है,
कर दूँ जुबान बन्द कि जायेगा जान से ?

खूरेज़ हो रही कहो आदम की नस्ल क्यों ?
क्या है यही नविश्त, मिटेगी जहान से ?

ग़मनाक हो रही है ख़ुदाई तेरी , ख़ुदा !
तू देखता तो होगा कभी आसमान से

जंग-ओ-जदल से कुछ नहीं हासिल हुआ कभी,
निकलेगा कोई रास्ता अम्न-ओ-अमान से ।

हर शख़्स मोतबर नहीं , ना ही अमीन है ,
इक दिन मुकर वो जाएगा अपनी जुबान से ।

’आनन’ तेरे जमीर से हासिल हुआ भी क्या ?
कुछ हैं जमीर बेच के रहते हैं  शान से

-आनन्द पाठक-
 शब्दार्थ
ग़मनाक  = कष्ट्पूर्ण
ख़ूरेज़ = खून बहाने वाला ,ख़ूनी
नविश्त = [भाग्य ] लेख
जंग-ओ-जदल से =युद्ध से
अम्न-ओ-अमन  = शान्ति से
मोतबर  = विश्वस्त
अमीन  =ईमानदार

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