सोमवार, 29 मार्च 2021

ग़ज़ल 127

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बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़  मक़्बूज़ सालिम
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सब को अपनी अपनी पड़ी है
मन-आँगन  दीवार  खड़ी  है

अच्छे दिन कैसे आएँगे  ?
सत्ता ही जब ख़ुद लँगड़ी  है

राह नुमाई  क्या करता ,वो
नाक़ाबिल है ,सोच सड़ी  है

कैसे उतरे चाँद  गगन  से ?
राहू-छाया द्वार  खड़ी   है

बिन व्याही बेटी के बापू
गिरवी में  रख्खी  पगड़ी  है

झूटे वादों से न बुझेगी
आग उदर की, भूख बड़ी है

सच पर पहरेदारी ’आनन’
पाँवों  में जंजीर पड़ी  है

-आनन्द.पाठक-
प्र

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