सोमवार, 29 मार्च 2021

ग़ज़ल 124

 1222---1222---1222---122
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन---फ़ऊलुन
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सलामत पाँव है जिनके वो कन्धों पर टिके हैं
जो चल सकते थे अपने दम ,अपाहिज से दिखे हैं

कि जिनके कद से भी ऊँचे "कट-आउट’ हैं नगर में
जो भीतर झाँक कर देखा बहुत नीचे गिरे हैं

बुलन्दी आप की माना कि सर चढ़  बोलती  है
मगर ये क्या कि हम सब  आप को बौने  दिखे हैं

ये "टुकड़े गैंग" वाले हैं फ़क़त मोहरे  किसी के
सियासी चाल है जिनकी वो पर्दे में छुपे  हैं

कहीं नफ़रत,कहीं दंगे ,कहीं अंधड़ ,हवादिस
मुहब्बत के चरागों को बुझाने  पर अड़े  हैं

हमारे साथ जो भी थे चले पहुँचे कहाँ तक
हमें भी सोचना होगा, कहाँ पर हम रुके हैं

धुले हैं दूध के ’आनन’ समझते  थे जिन्हें तुम
वही कुछ लोग हैं जो चन्द सिक्कों में बिके हैं

-आनन्द.पाठक-

[सं 30-06-19]

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