ग़ज़ल 304 [69इ]
1212---1122---1212---22
सफ़र हयात का आसाँ मेरा हुआ होता
हबीब आप सा कोई अगर मिला होता
निगाह आप ने मुझसे न फ़ेर लॊ होती
हक़ीर आप के कुछ काम आ गया होता
इधर उधर न भटकते तेरी तलाश में हम
तवाफ़ दिल का कभी हम ने कर लिया होता
अना की क़ैद से बाहर कभी नहीं निकला
अगर वो शख़्स निकलता तो कुछ भला होता
सज़ा गुनाह की मेरे न कुछ मिली होती
बयान आप ने ख़ारिज़ न कर दिया होता
जो दिल में आप की तसवीर हम नहीं रखते
ख़ुमार प्यार का अबतक उतर गया होता
हर एक दर पे झुकाता नहीं है सर ’आनन’
दयार आप का होता तो सर झुका होता ।
-आनन्द.पाठक-
तवाफ़ = परिक्र्मा करना
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