ग़ज़ल 331
212---212---212---212
ऐसी क्या हो गईं अब हैं मजबूरियाँ
लब पे क़ायम तुम्हारे है ख़ामोशियाँ
कल तलक रात-दिन राबिता में रहे
आज तुमने बढ़ा ली है क्यॊं दूरियाँ
एक पल को नज़र तुम से क्या मिल गई
लोग करने लगे अब है सरगोशियाँ
सोच उनकी अभी आरिफ़ाना नहीं
शायरी को समझते हैं लफ़्फ़ाज़ियाँ
ज़िंदगी भर जो तूफ़ान में ही पले
क्या डराएँगी उनको कभी बिजलियाँ
एक तुम ही तो दुनिया में तनहा नहीं’
इश्क़ में जिसको हासिल है नाकामियाँ
तेरी ’आनन’ अभी तरबियत ही नहीं
इश्क की जो समझ ले तू बारीकियाँ
-आनन्द.पाठक-
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