ग़ज़ल 332 [07]
2122---2122---2122
आदमी की सोच को यह क्या हुआ है
आज भी कीचड़ से कीचड़ धो रहा है
मजहबी जो भी मसाइल, आप जाने
दिल तो अपना बस मुहब्बत ढूँढता है
मन के अन्दर ही अँधेरा और उजाला
देखना है कौन तुम पर छा गया है
ज़िंदगी की शर्त अपनी, चाल अपनी
कब हमारे चाहने से क्या हुआ है ।
कौन मानेगा तुम्हारी बात कोई
बात अब तुमको बनाना आ गया है
देख सकते हैं मगर हम छू न सकते
चाँद नभ का है हमारा कब हुआ है ।
मौसिम-ए-गुल में कहाँ वो रंग ’आनन’
जो गुज़िस्ताँ दौर का होता रहा है ।
-आनन्द.पाठक-
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