ग़ज़ल 319(84)
1222---1222---1222---1222
वो माया जाल फैला कर जमाने को है भरमाता
हक़ीक़त सामने जब हो, मै कैसे खुद को झुठलाता
जिसे तुम सोचते हो अब कि सूरज डूबने को है
जो आँखें खोल कर रखते नया मंजर नजर आता
मै मह्व ए यार मे डूबी हुई खुद से जुदा होकर
लिखूँ तो क्या लिखूँ दिल की उसे पढ़ना नही आता
अजब दीवानगी उसकी नया राही मुहब्बत का
फ़ना है आखिरी मंजिल उसे यह कौन समझाता
मसाइल और भी तो हैं मुहब्बत ही नहीं केवल
कभी इक गाँठ खुलती है तभी दूजा उलझ जाता
दबा कर हसरतें अपनी तेरे दर से गुजरता हूँ
सुलाता ख़्वाब हूँ कोई, नया कोई है जग जाता
वही खुशबख्त है 'आनन' जिसे हासिल मुहब्बत है
नहीं हासिल जिसे वह दिल खिलौनों से है बहलाता
-आनन्द पाठक-
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