रविवार, 25 फ़रवरी 2024

ग़ज़ल 313

  ग़ज़ल 313/78


221---2121---1221---212


जब झूठ की ज़ुबान सभी बोलते रहे

सच जान कर भी आप वहाँ चुप खड़े रहे


दिन रात मैकदा ही तुम्हारे खयाल में

तसबीह हाथ में लिए क्यों फेरते रहे


इन्सानियत की बात किताबों में रह गई

अपना बना के लोग गला काटते रहे


चेहरे के दाग़ साफ नजर आ रहे जिन्हे

इलजाम आइने पे वही थोपते रहे


क्या दर्द उनके दिल में है तुमको न हो पता

अपनी ज़मीन और जो घर से कटे रहे


कट्टर ईमानदार हैं जी आप ने कहा

घपले तमाम आप के अब सामने रहे


बस आप ही शरीफ़ हैं मजलूम हैं जनाब

मासूमियत ही आप सदा बेचते रहे


'आनन' को कुछ खबर न थी, मंजिल पे थी नजर

काँटे चुभे थे पाँव में या आबले रहे


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ = नाम जपने की माला

मजलूम =पीड़ित


इसी ग़ज़ल को मेरी आवाज़ में सुने---

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