रविवार, 25 फ़रवरी 2024

ग़ज़ल 311

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एक ग़ज़ल 311 [76इ]


दिखा कर झूठ के सपने हमें भरमा रहे हो

जो जुमले घिस चुके क्यों बारहा रटवा रहे हो


अकेले तो नहीं तुम ही जो लाए थे उजाले

यही इक बात हर मौके पे क्यों दुहरा रहे हो


दिखा कर ख़ौफ़ का  मंज़र जो लूटे हैं चमन को

उन्हीं को आज पलकों पर बिठाए जा रहे हो


अगर शामिल नहीं थे तुम गुजस्ता साजिशों में

नही है सच अगर तो किस लिए  घबरा रहे हो ?


सबूतों के लिए तुम बेसबब हो क्यों परेशाँ

खड़ा सच सामने जब है तो क्या झुठला रहे हो


ये मिट्टी का बदन है ख़ाक में मिलना है इक दिन

ये इशरत चार दिन की है तो क्यों इतरा रहे हो


तुम्हारी कैफ़ियत ’आनन’ यही है तो कहेँ क्या  

जहाँ पत्थर दिखा बस सर झुकाते जा रहे हो


-आनन्द पाठक-

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