ग़ज़ल 310 [75इ]
1222---1222---1222--122
हमे कब से वो शिद्दत से यही बतला रहा है
लहू के रंग कितने हैं हमें समझा रहा है
उसे भाता नहीं सुख चैन मेरी बस्तियों का
हवा दे कर बुझे शोलों को वो भड़का रहा है
फ़रिश्ता बन के उतरेगा न कोई आसमाँ से
बचे हैं जो उन्हें सूली चढ़ाया जा रहा है
जो बाँटी 'रेवड़ी' उसने, दिखे बस लोग अपने
ज़माने को वह असली रंग अब दिखला रहा है
वो कर के दरजनो वादे हुआ सत्ता पे काबिज़
निभाने की जो पूछी बात तो हकला रहा है ।
इधर पानी भरा बादल तो आता है यक़ीनन
पता चलता नहीं पानी किधर बरसा रहा है
वो मीठी बात करता सामने हँस हँस कर ’आनन’
पस-ए-पर्दा वो टेढ़ी चाल चलता जा रहा है
-आनन्द.पाठक-
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