ग़ज़ल 327[03F]
212---212---212---212
जिंदगी में रही इक कमी उम्र भर
इन लबों पर रही तिशनगी उम्र भर
तुम जो आते तो दिल होता रोशन मेरा
तुम न आए रही तीरगी उम्र भर
जानता हूँ मगर कह मैं सकता नहीं
ज़िंदगी क्यों मुझे तुम छ्ली उम्र भर
ये नज़ाकत, लताफ़त ये लुत्फ़-ओ-अदा
किसकी क़ायम यहाँ कब रही उम्र भर
आप की बात पर था भरोसा मुझे
राह देखा किए आप की उम्र भर
हो न लुत्फ़-ओ-इनायत भले आप की
दिल करेगा मगर बंदगी उम्र भर
सबको अपना समझते हो ’आनन’ यहाँ
कौन होता किसी का कहाँ उम्र भर
-आनन्द.पाठक-
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