ग़ज़ल 324[89]
122---122---122---122
इबादत में मेरी कहीं कुछ कमी है
निगाहों में क्यों दिख रही बेरुखी है
तेरी शख़्सियत का मैं इक आइना हूँ
तो फिर क्यों अजब सी लगे ज़िंदगी है
नहीं प्यास मेरी बुझी है अभी तक
अजल से लबों पर वही तिश्नगी है
यक़ीनन नया इक सवेरा भी होगा
नज़र में तुम्हारी अभी तीरगी है
बहुत दूर तक देख पाओगे कैसे
नहीं दिल में जब इल्म की रोशनी है
तुम आओगे इक दिन भरोसा है मुझको
उमीदो पे ही आज दुनिया टिकी है
ये मुमकिन नहीं लौट जाऊँ मै ’आनन’
ये मालूम है इश्क़ ला-हासिली है ।
-आनन्द.पाठक-
अजल = अनादि काल से
ला-हासिली =निष्फल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें