सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

ग़ज़ल 324

  ग़ज़ल 324[89]


122---122---122---122


इबादत में मेरी कहीं कुछ कमी है

निगाहों में क्यों दिख रही बेरुखी है


तेरी शख़्सियत का मैं इक आइना हूँ

तो फिर क्यों अजब सी लगे ज़िंदगी है


नहीं प्यास मेरी बुझी है अभी तक

अजल से लबों पर वही तिश्नगी है


यक़ीनन नया इक सवेरा भी होगा

नज़र में तुम्हारी अभी तीरगी  है


बहुत दूर तक देख पाओगे कैसे

नहीं दिल में जब इल्म की रोशनी है


तुम आओगे इक दिन भरोसा है मुझको

उमीदो पे ही आज दुनिया टिकी है 


ये मुमकिन नहीं लौट जाऊँ मै ’आनन’

ये मालूम है इश्क़ ला-हासिली है ।


-आनन्द.पाठक-

अजल = अनादि काल से

ला-हासिली =निष्फल



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें