ग़ज़ल 169
1212---1122---1212---22
अगर ढलान से दर्या नहीं चला होता
मिलन की प्यास का सागर को क्या पता होता
तुम इतमिनान से इलजाम धर गए मुझ पर
जवाब क्या था मेरा भी तो सुन लिया होता
हसीन ख़्वाब दिखा कर उसे न बहलाते
वो जानता जो हक़ीक़त तो मर गया होता
कि तुम भी हो गए शामिल हवा की साज़िश में
चराग़ तुम न बुझाते ,नहीं बुझा होता
तमाम धमकियाँ सहता रहा ज़माने की
चमन के दर्द का कोई तो हमनवा होता
यक़ीन कौन करेगा तुम्हारी बातों का
कहीं भी सच का ज़रा रंग तो मिला होता
ज़मीर वक़्त पे जो जागता नहीं ’आनन’
किसी के पाँव के नीचे दबा पड़ा होता
-आनन्द पाठक-
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