रविवार, 16 मई 2021

ग़ज़ल 168

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ग़ज़ल 168

सभी ग़म एक से होते, नहीं होते किसी के कम
बयाँ कर देते हैं आँसू,  छुपाएँ लाख चाहे हम

दिया ख़ुद को जलाती है तो होता रास्ता रोशन
हवाएँ धौस देती हैं ,न जाने क्यों उसे हरदम

उमीदों के दरख़्तों पर कभी तो फूल आएँगे
बहारें लौट आएँगी ,बदलने दो ज़रा मौसम

सफ़र किसका कहाँ तक जा के रुक जाए नहीं मालूम
चलो मिल कर जलाते हैं मुहब्बत का दिया जानम

सितारे चाँद आ जाते उतर कर आसमाँ से ,सच
ज़रा कुछ दूर तक चलते निभाते साथ जो हमदम

क्षितिज के पार से जाने बुलाता कौन है मुझको
कि लगता है कोई रिश्ता पुराना है अभी क़ायम

ये जीवन चार दिन का है गुज़ारें हँस के सब ’आनन’
कहाँ होगे सखे ! कल तुम ,कहाँ होंगे न जाने हम 

-आनन्द.पाठक-

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