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ग़ज़ल 171
आँकड़ों से हक़ीक़त छुपाना भी क्या
रोज़ रंगीन सपने दिखाना भी क्या !
रोज़ रंगीन सपने दिखाना भी क्या !
सोच में जब भरा हो धुआँ ही धुआँ
उनका सुनना भी क्या और सुनाना भी क्या !
वो जमीं के मसाइल न हल कर सके
चाँद पर फिर महल का बनाना भी क्या !
बस्तियाँ जल के जब ख़ाक हो ही गईं
बाद जलने के आना न आना भी क्या !
अब सियासत में बस गालियाँ रह गईं
ऎसी तहजीब को आजमाना भी क्या !
चोर भी सर उठा कर चले आ रहें
उनको क़ानून का ताज़ियाना भी क्या !
लाख दावे वो करते रहे साल भर
उनके दावों का सच अब बताना भी क्या !
इस व्यवस्था में ’आनन’ कहाँ तू खड़ा ,
तेरा जीना भी क्या, तेरा जाना भी क्या !
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
मसाइल = समस्यायें .मसले
ताज़ियाना = चाबुक ,कोड़े
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