शुक्रवार, 28 मई 2021

ग़ज़ल 174

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ग़ज़ल 174

किसी के प्यार में ये दिल लुटा दिया मैने
हसीन जुर्म पे ख़ुद को सज़ा  दिया  मैने ।

तलाश जिसकी थी वो तो नहीं मिला फिर भी
तमाम उम्र उसी में गँवा दिया मैने ।

भटक न जाएँ मुसाफ़िर कहीं अँधेरों में
चिराग़ राह में दिल का जला दिया मैने ।

जहाँ भी नक़्श-ए-क़दम आप का नज़र आया
मुक़ाम-ए-ख़ास समझ, सर झुका दिया मैने ।

इसी उमीद  में जीता रहा कि आओगे
ख़बर न आई तो दीया बुझा दिया मैने ।

नहीं हूँ फ़ैज़ तलब जो भी फ़ैसला कर दो
गुनाह जो भी था अपना बता दिया मैने ।

लगे न दाग़ कहीं इश्क़ पाक है ’आनन’
फ़ना का रस्म था वो भी निभा दिया मैने ।

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ


फ़ैज़-तलब = यश का आकांक्षी

मुक़ाम-ए-ख़ास = विशिष्ट स्थान

फ़ना = प्राणोत्सर्ग


1 टिप्पणी:

  1. नहीं हूँ फ़ैज़ तलब जो भी फ़ैसला कर दो
    गुनाह जो भी था अपना बता दिया मैने ।--वाह बहुत गहन पंक्तियां।

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