बुधवार, 9 मार्च 2022

ग़ज़ल 219

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ग़ज़ल 219


सितम मुझ  पर हज़ारों थे, उन्हे जोर आज़माना था

मुहब्बत में फ़ना हो कर. मुझे भी तो दिखाना था


यहाँ हर मोड़ बैठे थे , शिकारी जाल फैलाए

कमाल अपना हुनर अपना कि खुद बचना बचाना था


जहाँ कुछ राख की ढेरी  नज़र आए समझ लेना, 

इसी गुलशन में मेरा भी वहीं इक आशियाना था


गरज़ उसकी पड़ी अपनी तुम्हारी जी हज़ूरी की

यहाँ पर कौन अपना था किसे वादा निभाना था 


उमीद उनसे लगाई थी वो आयेंगे इयादत को

कि उनके पास पहले ही न आने का बहाना था


लगी जब आग बस्ती में बुझाने लोग आए थे

वहीं कुछ लोग ऐसे थे जिन्हें ’सेल्फ़ी’ बनाना था


कहाँ की बात करते हो कि ’कलयुग’ आ गया ’आनन’

किताबों में पढ़ा होगा कि ’सतयुग’ का ज़माना था 


-आनन्द.पाठक-


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