ग़ज़ल 220
221—2121—1221—212
पैग़ाम-ए-इश्क़ सबको सुनाती यही ग़ज़ल
दुनिया के ग़म का बोझ उठाती यही ग़ज़ल
मायूसियों के दौर में कोई हो ग़मजदा
तारीक़ियों में राह दिखाती यही ग़ज़ल
ग़ंग-ओ-जमन की मौज सी लबरेज़ प्यार से
नफ़रत की आग दिल की बुझाती यही ग़ज़ल
आदाब-ए-ज़िंदगी कभी अरकान-ए-तर्बियत
तहज़ीब-ए-गुफ़्तगू भी सिखाती यही ग़ज़ल
ख़ुशबू ज़बान की है हलावत लिए हुए
ग़ैरो को भी गले से लगाती यही ग़ज़ल
अल्फ़ाज़ बाँधने की ये जादूगरी नहीं
अन्दर में रूह तक कहीं जाती यही ग़ज़ल
’आनन’ ग़ज़ल की खूबियाँ क्या जानता नहीं ?
दो दिल की दूरियों को मिटाती यही ग़ज़ल ।
-आनन्द.पाठक-
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