[अभी संभावना है--27]
221--2122 // 221--2122
ग़ज़ल 214[27]
दीवार खोखली है, बुनियाद लापता है
वह सोचता है खुद को, दुनिया से वह बड़ा है
मझधार में पड़ा है , लेकिन ख़बर न उसको
कहता है ’मुख्यधारा’ के साथ बह रहा है
आतिश ज़ुबान उसकी, है चाल कजरवी भी
अपने गुमान में है, कुरसी का यह नशा है
वह देखता भी दुनिया तो देखता भी कैसे
जब भाट-चारणॊं से दिन-रात वह घिरा है
महरूम रोशनी से, ताज़ी नई हवा से
अपने मकान की वह खिड़की न खोलता है
उसकी ज़ुबाँ में शामिल ग़ैरों की भी ज़ुबाँ थी
जितनी भरी थी चाबी उतना ही वह चला है
वह ख़ून की शहादत में ढूँढता सियासत
जाने सबूत की क्यों पहचान माँगता है ?
ग़मलों में कब उगे हैं बरगद के पेड़ ’आनन’
लेकिन उसे भरम है क्या सोच में रखा है ।
-आनन्द.पाठक-
बाबे-सुखन 22-02-22
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