ग़ज़ल 216 :
212---212---212---212
फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
------ ----------
झूठ पर झूठ वह बोलता आजकल
क़ौम का रहनुमा बन गया आजकल
चन्द रोज़ा सियासत की ज़ेर-ए-असर
ख़ुद को कहने लगा है ख़ुदा आजकल
साफ़ नीयत नहीं, ना ही ग़ैरत बची
शौक़ से दल बदल कर रहा आजकल
उसकी बातों में ना ही सदाक़त रही
उसको सुनना भी लगता सज़ा आजकल
तल्ख़ियाँ बढ़ गई हैं ज़ुबानों में अब
मान-सम्मान की बात क्या आजकल
आँकड़ों की वह घुट्टी पिलाने लगा
आँकड़ों से अपच हो गया आजकल
यह चुनावों का मौसम है ’आनन’ मियाँ
खोल कर आँख चलना ज़रा आजकल
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
ज़ेर-ए-असर = प्र्भाव के अन्तर्गत
सदाक़त = सच्चाई
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें