ग़ज़ल 204 [06]
221--1222 // 221-1222
ख़ामोश रहे कल तक, मुठ्ठी न भिंची उनकी
आवाज़ उठाए अब , बस्ती जो जली उनकी
बच बच के निकलते हैं, मिलने से भी कतराते
कल तक थे प्रतीक्षारत हर रात कटी उनकी
जाने वो ग़लत थे या, थी मेरी ग़लतफ़हमी
जो नाज़ उठाते थे ,क्यों बात लगी उनकी
कश्ती भी वहीं डूबी ,जब पास किनारे थे
जो साथ चढ़े सच के, कब लाश मिली उनकी
साज़िश थीं हवाओं की, मौसम के इशारों पर
जब राज़ खुला उनका , हर बात खुली उनकी
बातें तो बहुत ऊँची, पर सोच में बौने है
हर मोड़ पे बिकते हैं ,ग़ैरत न बची उनकी
’आनन’ तू किसी पर भी ,इतना भरोसा कर
लगता हो भले तुमको ,हर बात भली उनकी
-आनन्द. पाठक-
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