ग़ज़ल 272 /37इ
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बह्र-ए-मुत्दारिक मुसम्मन सालिम
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ज़िंदगी रंग क्या क्या दिखाने लगी
आँख नम थी मगर मुस्कराने लगी
यक ब यक उसके रुख से जो पर्दा उठा
रूबरू हो गई मुँह छुपाने लगी
सामने जब मैं उनको नज़र में रखा
फिर ये दुनिया नजर साफ आने लगी
बागबाँ की नज़र, बदनज़र हो गई
हर कली बाग़ की खौफ़ खाने लगी
मैं बनाने चला जब नया आशियाँ
बर्क़-ए-ख़िरमन मुझे क्यों डराने लगी ?
आप की जब से मुझ पर इनायत हुई
ज़िंदगी तब मुझे रास आने लगी
तुमको ’आनन’ कहाँ की हवा लग गई
जो ज़ुबाँ झूठ को सच बताने लगी ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
बर्क़-ए-ख़िरमन = आकाशीय बिजली
जो खलिहान तक जला दे
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