बुधवार, 10 अगस्त 2022

ग़ज़ल 246

 ग़ज़ल 246 [11E]


2122---1212---22


दर्द-ए-दिल को जगा के रखते हैं

राज़ अपना छुपा  के रखते हैं


इश्क़ में कुछ ग़लत न कर बैठे

दिल को समझाबुझा के रखते हैं


जो मिला आप की इनायत है

रंज़-ओ-ग़म भी सजा के रखते हैं


लोग ऐसे भी हैं ज़माने में

जाल अपना बिछा के रखते हैं


तीरगी में भटक न जाएँ, वो

लौ दिए की बढ़ा  के रखते हैं


जब नज़र आते नक़्श-ए-पा उनके

सामने सर झुका के रखते हैं


अक्स है आप ही का जब ’आनन’

फ़ासिला क्यों बना के रखते हैं ?


-आनन्द.पाठक-


तीरगी में = अन्धकार में /अँधेरे में

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