ग़ज़ल 246 [11E]
2122---1212---22
दर्द-ए-दिल को जगा के रखते हैं
राज़ अपना छुपा के रखते हैं
इश्क़ में कुछ ग़लत न कर बैठे
दिल को समझाबुझा के रखते हैं
जो मिला आप की इनायत है
रंज़-ओ-ग़म भी सजा के रखते हैं
लोग ऐसे भी हैं ज़माने में
जाल अपना बिछा के रखते हैं
तीरगी में भटक न जाएँ, वो
लौ दिए की बढ़ा के रखते हैं
जब नज़र आते नक़्श-ए-पा उनके
सामने सर झुका के रखते हैं
अक्स है आप ही का जब ’आनन’
फ़ासिला क्यों बना के रखते हैं ?
-आनन्द.पाठक-
तीरगी में = अन्धकार में /अँधेरे में
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