बुधवार, 10 अगस्त 2022

ग़ज़ल 248

  ग़ज़ल 248 [13E]


2122----1212---22


बीज नफ़रत के बोए जाते हैं

लोग क्यॊं बस्तियाँ जलाते हैं


एक दिन वो भी ज़द में आएँगे

ख़ार  राहों में जो बिछाते हैं


गर चिरागाँ सजा नहीं सकते

तो चिरागों को क्यों बुझाते है ?


खुद को वो दूध का धुला कहते 

कठघरे में कभी जो आते हैं


जिनके दामन रँगे गुनाहों से

ग़ैर पर ऊँगलियाँ  उठाते हैं


दीन-ओ-मज़हब के नाम पर दंगे

’वोट’ की खातिर सदा कराते हैं


आप से अर्ज़ क्या करे ’आनन’

कौन सी बात मान जाते हैं ।


-आनन्द.पाठक-


चिरागाँ = दीपमालिका

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