ग़ज़ल 356/31
221---1221---1221---122
मिलता है बड़े शौक़ से वह हाथ बढ़ा कर
रखता है मगर दिल में वो ख़ंज़र भी छुपा कर
तहज़ीब की अब बात सियासत में कहाँ हैं
लूटा किया है रोज़ नए ख़्वाब दिखा कर
यह शौक़ है या ख़ौफ़ कि आदात है उसकी
मिलता है हमेशा वह मुखौटा ही चढ़ा कर
करने को करे बात वो ऊँची ही हमेशा
जब बात अमल की हो, करे बात घुमा कर
जिस बात का हो सर न कोई पैर हो प्यारे
उस बात को बेकार न हर बार खड़ा कर
यह कौन सा इन्साफ़, कहाँ की है शराफ़त
कलियों को मसलते हो ज़बर ज़ोर दिखा कर
’आनन’ तू करे और पे क्यों इतना भरोसा
धोखा ही मिला जब है तुझे दिल को लगा कर।
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें