ग़ज़ल 177
221--1222 //221-1222
हर बात पे नुक़्ताचीं ,उनकी तो ये आदत है
हम ग़ौर से सुनते हैं,अपनी ये ज़हानत है
अच्छा न बुरा कोई ,सब वक़्त के मारे हैं
तकदीर अलग सब की.सब रब की इनायत है
सब लोग सफ़र में हैं, फिर लौट के कब आना
चलना ही जहाँ चलना ,कैसी ये मसाफ़त है ?
पर्दे में अज़ल से वो , देखा भी नहीं हमने
हर शै में नज़र आता ,जब दिल में सदाकत है
वीरान पड़ा है दिल, मुद्दत भी हुई अब तो
आता न इधर कोई, करने कोअयादत है
क्यों पूछ रही हो तुम ’आनन’ का पता क्या है?
क्या कोई सितम बाक़ी,क्या कोई क़यामत है ?
”आनन’ की जमा पूँजी , बाक़ी है बची अबतक
इक चीज़ है ख़ुद्दारी ,इक चीज़ शराफ़त है
-आनन्द.पाठक
मसाफ़त = सफ़र
अज़ल से = अनादि काल से
सदाक़त = सच्चाई
इयादत = मरीज का हाल चाल पूछना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें