ग़ज़ल 178
21--21-121--122 // 21-121-121-122
अपना ही क्यों हरदम गाते, तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ .
कैसे कैसे स्वाँग रचाते , तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ .
बात यक़ीनन कुछ तो होगी, मतलब होगा उनका,वरना
क्यों क़ातिल का साथ निभाते?, तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ .
चोट लगी हो जब शब्दों से, जीवन भर वो रिसते रहते
घाव कहाँ कब हैं भर पाते? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ .
इतने तो मासूम नहीं हो, जान रही है दुनिया सारी
फिर तुम क्यों खुद को झुठलाते? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ
.
चाँद सितारों की बातों से ,मुझको क्या है लेना-देना
क्या सच है यह क्यों न बताते? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ .
चाँद सितारों की बातों से ,मुझको क्या है लेना-देना
क्या सच है यह क्यों न बताते? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ .
फ़ित्ना उभरा, बस्ती उजड़ी, लोग मगर ख़ामोश रहे क्यूँ
हम सब क्यों गूँगे हो जाते ? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ .
माया की ही सब माया है, जान रहे हो तुम भी ’आनन’
दलदल में क्यों फँसते जाते ? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ .
-आनन्द.पाठक-
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