ग़ज़ल 290[55E]
2122---1212---22
उनसे मिलना नहीं हुआ फिर भी
शौक़ मेरा बना रहा फिर भी
आग नफ़रत की बुझ चुकी कब की
लोग देते रहे हवा फिर भी
अह्ल-ए-दुनिया कहे बुरा मुझको
मैने माना नहीं बुरा फिर भी
छोड़ कर जो चला गया मुझको
याद आता है बारहा फिर भी
वह मिला भी तो फ़ासिले से मिला
वह गले से नहीं मिला फिर भी
सच अगर सच है ख़ुद ही बोलेगा
लाख हो झूठ से दबा फिर भी
जागना था उसे जहाँ ’आनन’
जाग कर हैफ़! सो गया फिर भी
-आनन्द.पाठक--
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