रविवार, 3 सितंबर 2023

ग़ज़ल 297

  ग़ज़ल 297/62


212--212--212--212

फेर ली तुमने क्यों मुझसे अपनी नज़र

छोड़ कर दर तुम्हारा मैं जाऊँ किधर ?


ये अलग बात है तुम न हासिल हुए

प्यार की राह लेकिन चला उम्र भर


उठ के दैर-ओ-हरम से इधर आ गया

जिंदगी मयकदे में ही आई नजर


ख़ुदनुमाई से तुमको थी फ़ुरसत कहाँँ

देखते ख़ुद को भी देखते किस नज़र


बोल कर थे गए लौट आओगे तुम

रात भी ढल गई पर न आई ख़बर


सरकशी मैं कहूँ या कि दीवानगी 

वह बनाने चला बादलों पर है घर


उसको ’आनन’ सियासी हवा लग गई

झूठ को सर झुकाता सही मान कर 


-आनन्द.पाठक-

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें