ग़ज़ल 284[49इ]
2122--2122--212
बन के साया चल रहा था हमक़दम
’अलविदा’ कह कर गया मेरा सनम
वक़्त देता ज़ख़्म हर इनसान को
वक़्त ही भरता रहेगा दम ब दम
बोझ यह हल्का लगेगा दिन ब दिन
हौसले से जब रखोगे हर क़दम
बोझ अपना ख़ुद उठाना उम्र भर
सिर्फ़ लफ़्ज़ों से नहीं होते हैं कम
ज़िन्दगी आसान तो होती नहीं
रहगुज़र में सैकड़ॊं हैं पेंच-ओ-ख़म
फ़लसफ़े की बात है अपनी जगह
बाँटता है कौन किसका दर्द-ओ- ग़म
जानता है तू भी ’आनन’ सत्य क्या
बेसबब क्यों कर रहा है चश्म-ए-नम?
-आनन्द.पाठक
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