रविवार, 3 सितंबर 2023

ग़ज़ल 295

  ग़ज़ल 295[60इ]

1222---1222---1222---1222


यही देखा किया मैने यही होता रहा अक्सर

कभी नदियाँ रहीं प्यासी कभी प्यासा रहा सागर


जो डूबोगे तो जानोगे किसी दर्या की गहराई

भला समझोगे तुम कैसे किनारों पर खड़े होकर


जो अफ़साना अधूरा था विसाल-ए-यार का मेरा

चलो बाक़ी सुना दो अब कि नींद आ जाएगी बेहतर


हमें ऎ ज़िंदगी ! हर मोड़ पर क्यों आजमाती है

हमारे आशियाँ पर क्यों तुम्हारे ख़ौफ़ का मंज़र ?


नदी को इक समन्दर तक लबों कि तिश्नगी उसकी

पहाड़ों में कि सहरा में दिखाती राह बन ,रहबर 


उधर अब शाम ढलने को ,इधर लम्बा सफ़र बाक़ी

तराना छेड़ कुछ ऐसा सफ़र कट जाए, ऎ दिलबर !


तमाशा खूब है यह भी, किसे तू ढूँढता 'आनन'

जिसे तू ढूँढता रहता वो रहता है तेरे अन्दर


-आनन्द.पाठक-


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