बुधवार, 9 जुलाई 2025

ग़ज़ल 442

  ग़ज़ल  442

2122---2122---2122---212


आदमी में शौक़-ए-उल्फ़त और रहमत चाहिए
सोच में हो सादगी, दिल में दियानत चाहिए ।


साँस ले ले कर ही जीना ज़िंदगी काफी नहीं 

ज़िंदगी के रंग में कुछ और रंगत  चाहिए ।


अह्ल-ए-दुनिया आप की बातें सुनेगे  एक दिन

आप की आवाज़ में कुछ और ताक़त चाहिए ।



जब कि चेहरे पर तुम्हारे गर्द भी है दाग़ भी

सामने जब आईना , फिर क्या वज़ाहत चाहिए ।


कश्ती-ए-हस्ती हमारी और तूफ़ाँ सामने

ख़ौफ़ क्या, बस आप की नज़र-ए-इनायत चाहिए।



जानता हूँ ज़िंदगी की राह मुशकिल, पुरख़तर

आप की बस मेहरबानी ता कयामत  चाहिए ।


ढूँढता हर एक दिल ’आनन’ सहारा , हमनशीं

मौज-ए-दर्या को भी साहिल की कराबत चाहिए ।


-आनन्द.पाठक-




ग़ज़ल 441

ग़ज़ल 441

221---2121---1221---212


उनको अना, गुरूर का ऐसा चढ़ा नशा

ख़ुद को वो मानने लगे हैं आजकल ख़ुदा ।


हर दौर के उरूज़ का हासिल यही रहा

परचम बुलंद था जो कभी खाक में मिला ।


रुकता नहीं है वक़्त किसी शख़्स के लिए

तुम कौन तीसमार हो औरों से जो जुदा ।


जिसकी क़लम बिकी हो, ज़ुबाँ भी बिकी हुई

सत्ता के सामने वो भला कब हुआ खड़ा ।


जो सामने सवाल है उसका न ज़िक्र है

बातें इधर उधर की वो कब से सुना रहा ।


क़ायम है ऎतिमाद तो क़ायम है राह-ओ-रब्त

वरना तो आदमी न किसी काम का हुआ ।



’आनन’ ज़रा तू सोच में रद्द-ओ-बदल तो कर

फिर देख ज़िंदगी  कभी  होती नहीं  सज़ा ।



-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 
उरूज़ = उत्त्थान, विकास

ऎतिमाद = विश्वास , भरोसा

राह-ओ-रब्त = मेल जोल, मेल मिलाप, दोस्ती


ग़ज़ल 440

  ग़ज़ल 440 


2122---2122---2122

एक मुद्दत से वो  दुनिया से ख़फ़ा है ।

  मन मुताबिक जब न उसको कुछ मिला है 


जख़्म दिल के कर रहे है हक़ बयानी

आदमी हालात से कितना लड़ा है ।


हारने या जीतने से है ज़ियादा

आप का ख़ुद हौसला कितना बड़ा है।


बाज कब आती हवाएँ साज़िशों से

पर चिराग़-ए-इश्क़ कब इन से डरा है।


आदमी की साज़िशो से साफ़ ज़ाहिर

आदमी अख़्लाक़ से कितना गिरा है ।


जोश हो, हिम्मत इरादा हो अगर तो

कौन सा है काम मुश्किल जो रुका है।


ज़िंदगी है इक गुहर नायाब ’आनन’

एक तुहफ़ा है , ख़ुदा ने की अता है ।


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 439

 ग़ज़ल 439


1222---1222---1222---1222


जो राहें ख़ुद बनाते हैं , उन्हें क्या खौफ़, आफ़त क्या

मुजस्सम ख़ुद विरासत हैं, उधारी की विरासत क्या ।


पले हों ’रेवड़ी’ पर जो, सदा ख़ैरात पर जीते

उन्हें तुम क्यों जगाते हों, करेंगे वो बग़ावत क्या ।


नज़र रहते हुए भी जो, बने कस्दन हैं नाबीना

उन्हें करना नहीं कुछ भी तो फिर शिकवा शिकायत क्या ।


रखूँ उम्मीद क्या उनसे, करेगा वह भला किसका

हवा का रुख़ न पहचाने करेगा वह सियासत क्या ।


मिले वह सामने खुल कर मिलाए हाथ भी हँस कर

नहीं साजिश रचेगा वो, कोई देगा जमानत क्या ।


अगर ना तरबियत सालिम, नहीं अख़्लाक़ ही साबित

बिना बुनियाद के होती कहीं पुख़्ता इमारत क्या ।


करूँ मैं बात क्या ’आनन’, नहीं तहजीब हो जिसमे

पता कुछ भी न हो जिसको, अदब क्या है शराफ़त क्या ।


-आनन्द.पाठक-