बुधवार, 31 मार्च 2021

कविता 03

 प्यासी धरती प्यासे लोग !


इस छोर तक आते-आते
सूख गई हैं कितनी नदियाँ
दूर-दूर तक रह जाती है
बंजर धरती ,रेत, रेतीले टीले
उगती है बस झाड़-झाडियाँ
पेड़ बबूल के तीखे और कँटीले
हाथों में बन्दूक लिए ए०के० सैतालिस
साए में भी धूप लगे है

'बुधना' की दोआँखे नीरव
 प्यास भरी है
सुना कहीं से
'दिल्ली' से चल चुकी नदी है
आयेगी  उसके भी गाँव
ताल-तलैया भर जायेंगे
हरियाली फ़िर हो जायेगी
हो जायेगी धरती सधवा

लेकिन कितना भोला 'बुधना'
नदियाँ इधर नहीं आती हैं
उधर खड़े हैं बीच-बिचौलिए
'अगस्त्य-पान' करने वाले
मुड़ जाती है बीच कहीं से
कुछ लोगों के घर-आँगन में
शयन कक्ष में
वर्ष -वर्ष तक जल-प्लावन है

कहते हैं वह भी प्यासे
प्यासे वह भी,प्यासे हम भी
दोनों की क्या प्यास एक है?
"परिभाषा में शब्द-भेद है "

-आनन्द.पाठक-
[सं 08-07-18]
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