बुधवार, 31 मार्च 2021

कविता 05

 मृदुल अंकुर भी

तोड़ कर पत्थर पनपती है
एक उर्जा-शक्ति
अंतस में धधकती है
'मगर हम आदमी है
उम्र भर लड़ते रहे नित्य-प्रति की शून्य अभावों से
रोज़ सूली पर चढ़े - उतरे
आँख में आंसू भरे
और तुम?
 देवता बन कर बसे
जा पहाडों में ,गुफाओं में कन्दराओं में !
या नदी के छोर
दूर सागर से,कहीं उस पार
या किसी अनजान से थे द्वीप
या पर्वतों की कठिन दुर्गम चोटियां
वह पलायन था तुम्हारा??
या संघर्षरत की चूकती क्षमता ??
या स्वयं को निरीह पाना ??
या की हम से दूर रहना ??
हम मनुज थे
आदमी का था अदम्य साहस
खोज लेंगे ,आप के आवासस्थल
कंदरा में या गुफा में
यह हमारी जीजिविषा है
कट कर पत्थर पहाडों के
बाँध कर उत्ताल लहरें , सेतु-बन्धन
गर्जनाएं हो समंदर की
या कि दुर्गम चोटियां
हो हिमालय की , शिवालिक की
आ गएँ हैं पास भगवन !
यह हमारी शक्ति है
भाग कर हम जा नहीं बसते
कन्दराओं मे, गुफाओं में
क्यों की हम आदमी है
शून्य अभावों में
संघर्षरत रहना हमारी नियति है

-आनन्द  पाठक -

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