शनिवार, 27 मार्च 2021

ग़ज़ल 06

 मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन

1222----------1222---------1222------1222
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
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एक ग़ज़ल

ज़माने की अगर हम बेरुखी से डर गए होते
न होती आग दिल में तो कभी के मर गए हो्ते


नहीं हम ज़ब्त करते जो सदा-ए-दिल गमे-उल्फ़त
तो टकराते पहाड़ों से पिघल पत्थर गए होते


मेरे नायाब थे आँसू, वो गौहर थे इन आँखों के
छुपा कर जो नहीं रखता ,अभी तक झर गए होते


हमारा ज़िक्र भूले से कोई जो कर गया होता
यकीनन उनकी आँखों में भी आँसू भर गए होते


अना की क़ैद ना होती ,ये दिल मगरूर ना होता
तो कूचे से तुम्हारे हम झुका कर सर गए  होते


अगर बुतख़ाने से पहले ये मयख़ाना नहीं मिलता
सुकूँ दिल को कहाँ मिलता कि किसके दर गए होते ?


सभी की मंज़िलें अपनी ,जुदा राहें यहाँ  ’आनन’
किसी भी राह से जाते तुम्हारे घर गए होते



--आनन्द.पाठक-

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