सोमवार, 22 मार्च 2021

गीत 08

 गीत : नफ़रत नफ़रत से बढ़े---


नफ़रत नफ़रत से बढ़े प्यार से प्यार बढ़े
अपनी बांहों में ज़माने को समेटो तो सही

लोग सहमे हैं खड़े खिड़कियाँ बंद किए
आँखे दहशत से भरी होंठ ताले हैं पड़े
उनके दर पे भी कभी प्यार से दस्तक देना
जिनकी खुशियाँ हैं बिकी सपने गिरवी हैं रखे
कौन कहता है कि पत्थर तो पिघलते ही नहीं
अपनी आँखों में बसा कर ज़रा देखो तो सही

कितनी बातें हैं रूकी पलकों पे कही अनकही
कितनी पीडा है मुखर अधरों पे सही अन सही
साथ अपने भी सफ़र में उन्हें लेते चलना -
राह में गिर जो पड़े श्वासें जिनकी हो थकी
तेरे कदमो पे इतिहास को झुकना होगा
हौसले से दो कदम ज़रा रखो तो सही

जो अंधेरों में पले जिनकी आवाजें दबी
भोर की क्या हैं किरण! जिसने देखी ही नहीं
जिनके सपने न कोई आँखे पथराई हों -
मुझको पावोगे वहीं उनकी बस्तियों में कहीं
कौन कहता हैं अंधेरों की चुनौती है बड़ी
एक दीपक तो जला कर कहीं रखो तो सही

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