गीत 11 : मालूम था मेरी देहरी को ---
मालूम था मेरी देहरी को ठुकरा कर चल जाना है
फिर भी तेरे स्वागत में है वन्दनवार सजाए ||
ऋचा-मन्त्र से आह्वान पर आह्वान करता हूँ
हवन-कुण्ड में आकांक्षा की समिधा देता हूँ
वही प्रतीक्षारत हैं आँखे कल भी आज वही
मुझको क्या मालूम नहीं था शर्ते आने की !
मालूम था पत्थर न कभी पिघला है न पिघलेगा
फिर भी आशाओं की अंजुरी भर-भर फूल चढ़ाए
एकाकी रातों की बातें तारो संग बांटे हैं
आँखों में सपने भर-भर अंधियारी कांटे है
उनको ही दुलराता हूँ सम्बल एकाकीपन की
वरना क्या मालूम नहीं था शर्तें चाहत की !
मालूम था मेरे आँगन में खुशियाँ कभी न उतरी हैं
फिर भी आंसू भर-भर कर हैं स्वागत कलश सजाए
सब ने हमको भ्रमित किया लम्बी राह दिखा कर
'ढाई-आखर' भुला दिया है ऊँची बात सुना कर
'पाप-पुण्य' है'ऊंच-नीच' है कैसी धर्म विवशता !
भुला दिया है आज मनुज ने मानव से मानवता
मार्ग अपावन उदघोषित कर तुम न इधर आओगे
फिर भी तेरे स्वागत में है पलकें पाँव बिछाए
संबोधन की मर्यादा है , संबोधन चाहे जो हो
सत्य-समर्पण ही शाश्वत ,नाम भले जो कह लो
मेरे मंदिर-आसन भी परित्यक्त नहीं,अभिमंत्रित है
प्राण-प्रतिष्ठा पावन क्षण में आप स्वयं आमंत्रित हैं
मालूम है सूनी नगरी में भला कौन आया है
फिर भी चन्दन-रोली-अक्षत अर्चन थाल सजाए
मालूम था .....
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