तुम हमारी जीत भी हो हार भी |
नीड़ का निर्माण करने को विकल
दो विहग जाने कहाँ से आ मिले हैं
विश्व में नव-गंध भर देंगे कभी -
दो सुमन अब इस धरा पर खिल उठे है
कल तुम्हारा रेशमी आँचल कहेगा
मैं तुम्हारा रूप भी , श्रृंगार भी |
खींच कर दो कोर काजल की नयन में
केश कुंतल राशि में गजरा सजा कर
सोलहो श्रृंगार कर के क्यों खड़ी हो ?
देखती हो राह क्यों सपने सजा कर ?
जब कभी दर्पण तुम्ही से कह उठेगा
उर्वशी देखी है पहली बार ही |
बोझ यह पत्थर उठाएगा कहाँ तक
भावना के फूल जो इतने चढाये
कौन-सी आराधना तुम कर रही ?
सच बता दो कौन-सी पूजन विधाये ?
जानती हो कल यह पत्थर क्या कहेगा ?
तुम मेरी आराधिका आराध्य भी |
वह तुम्हारी अर्चना थी या मेरी ?
कौन किसको मांग कर जग पा गया है
कौन-सी मनुहार थी यह तो बता दो
साथ चलने को कोई अब आ गया है
मिल गई हो अब न बिछुडेगे कभी
तुम प्रिये ! इस पार भी ,उस पार भी
क्या तुम्हे मालूम की दो नयन में
कितने अकिंचन स्वप्न जो मैंने उतारे
क्या मुझे मालूम तुम दीपक तले !
और मैंने शून्य में कितने पुकारे
जब कभी भुजपाश का बंधन कसेगा
तुम कहोगी दर्द भी है प्यार भी
क्यों हमारे गीत हर दम खोजते है
दो अधर के गुनगुनाने का सहारा ?
क्यों नहीं सजते हमारे सुर बता दो
रागिनी क्यों चाहती तेरा इशारा ?
जब तुम्हारे होंठ मेरी बांसुरी पर हो
तब प्रिये!तुम गीत भी हो राग भी |
तुम हमारी जीत हो ......
-आनन्द.पाठक-
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