बुधवार, 24 मार्च 2021

गीत 17

 एक गीत :हर बार समर्पण करता हूँ...


हर बार समर्पण करता हूँ हर बार गया ठुकराया हूँ
अधखुली उनींदी पलकों पर
इक मधुर मिलन की आस रही
दो अधरों पर तिरते सपने
चिर अन्तर्मन की प्यास रही
हर बार याचना सावन की हर बार अवर्षण पाया हूँ

तेरे घर आने की चाहत
गिरता हूँ कभी फिसलता हूँ
पाथेय नहीं औ दुर्गम पथ
लम्बा है सफ़र ,पर चलता हूँ
हर बार कल्पना मधुबन की, हर बार विजन वन पाया हूँ

अभिलाषाओं की सीमाएं
क्यों खींच नहीं डाली हमने
कुछ पागलपन था और नहीं
ये हाथ रहे खाली अपने
हर बार समन्वय चाहा है, हर बार प्रभंजन पाया हूँ

क्यों मेरे प्रणय समर्पण को
जग मेरी कमजोरी समझा
क्यों मेरे पावन परिणय को
तुमने समझा उलझा उलझा
हर बार भरा हूँ आकर्षण , हर बार विकर्षण पाया हूँ
हर बार समर्पण करता हूँ..........

-आनन्द

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