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फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुनबह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
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एक चुनावी ग़ज़ल
चुनावों के मौसम जो आने लगे हैं
’सुदामा’ के घर ’कृश्न’ जाने लगे हैं
जिन्हें पाँच वर्षों से देखा नहीं ,पर
वही ख़ुद को ख़ादिम बताने लगे हैं
हुई जिनकी ’टोपी’ है मैली-कुचैली
सफ़ाई के माने सिखाने लगे हैं
पुराने सपन सब हवा हो गए जब
नये ख़्वाब फ़िर से दिखाने लगे हैं
मेरी झोपड़ी को जला देने वालो
बनाने में इसको ज़माने लगे हैं
हमें उनकी नीयत पे शक है ,न शुबहा
मगर वो नज़र क्यों चुराने लगे हैं?
कहाँ जाके मिलते हम ’आनन’किसी से
यहाँ सब मुखौटे चढ़ाने लगे हैं
-आनन्द.पाठक
[नोट कृश्न = कृष्ण]
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