एक ग़ज़ल : कोई नदी जो उनके....
221---2122-// 221---2122
कोई नदी जो उनके ,घर से गुज़र गई है
चढ़ती हुई जवानी ,पल में उतर गई है
’बँगले" की क्यारियों में ,पानी तमाम पानी
प्यासों की बस्तियों में ,किसकी नज़र गई है
’परियोजना’ तो वैसे ’हिमखण्ड’ की तरह थी
पिघली तो भाप बन कर, जाने किधर गई है
हम बूँद बूँद तरसे ,थी तिश्नगी लबों की
आई लहर तो उनके, आँगन ठहर गई है
’’कम्मो’ से पूछ्ना था ,थाने घसीट लाए
’साहब’ से पूछना है ,सत्ता सिहर गई है
वो आम आदमी है ,हर रोज़ लुट रहा है
क्या पास है कि उसके ,सरकार डर गई है ?
क्या फ़िक्र,रंज़-ओ-ग़म है ,क्या सोचते हो ’आनन’?
फिर क्यों नहीं गए तुम ,दुनिया जिधर गई है ?
-आनन्द.पाठक-
[सं 22-06-19]
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