एक ग़ज़ल : चौक पे कन्दील जब ....
चौक पे कन्दील जब जलने लगी
तब सियासत मन ही मन डरने लगी
आदिलों की कुर्सियाँ ख़ामोश हैं
भीड़ ही अब फ़ैसला करने लगी
क़ातिलों की बात तो आई गई
कत्ल पे ही शक ’पुलिस’ करने लगी
ख़ून के रिश्ते फ़क़त पानी हुए
’मां’ भी बँटवारे में है बँटने लगी
जानता हूं ये चुनावी दौर है
फिर से सत्ता दम मिरा भरने लगी
तुम बुझाने तो गये थे आग ,पर
क्या किया जो आग फिर बढ़ने लगी
इस शहर का हाल क्या ’आनन’ कहूँ
क्या उधर भी धुन्ध सी घिरने लगी ?
-आनन्द पाठक
09413395592
आदिल = न्यायाधीश
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