शनिवार, 27 मार्च 2021

ग़ज़ल 47

 221---2121---1221---212

एक ग़ज़ल 

वो चाहता है  तीरगी को रोशनी  कहूँ
कैसे ख़याल-ए-ख़ाम को मैं आगही कहूँ ?

ग़ैरों के दर्द का तुम्हें  एहसास ही नहीं
फिर क्या तुम्हारे सामने ग़म-ए-आशिक़ी कहूँ !

सच सुन सकोगे तुम में अभी वो सिफ़त नहीं
कैसे सियाह रात को मैं चाँदनी कहूँ  ?

रफ़्तार-ए-ज़िन्दगी से जो फ़ुरसत मुझे मिले
रुदाद-ए-ज़िन्दगी मै कभी अनकही  कहूँ

जाने को थे किधर ,अरे ! जाने लगे किधर ?
मैं  बेखुदी कहूँ कि इसे तिश्नगी कहूँ ?

’ज़र’ भी पड़ा है सामने ,’ईमान’ भी  खड़ा
’आनन’ किसे मैं छोड़ दूँ,किसको ख़ुशी,कहूँ

-आनन्द पाठक--

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें