221----2121------1221-----212
मज़ारिअ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु----फ़ाइलातु--- मफ़ाईलु---फ़ाइलुन
-----------------------------------------------
एक मज़ाहिका ग़ज़ल :---ज़रा हट के ---ज़रा बच के---
मेरे भी ’फ़ेसबुक’ पे कदरदान बहुत हैं
ख़ातून भी ,हसीन मेहरबान बहुत हैं
"रिक्वेस्ट फ़्रेन्डशिप" पे हसीना ने ये कहा-
"लटके हैं पाँव कब्र में ,अरमान बहुत हैं"
’अंकल’ -न प्लीज बोलिए ऎ मेरे जान-ए-जाँ
’अंकल’, जो आजकल के हैं ,शैतान बहुत हैं
टकले से मेरे चाँद पे ’हुस्ना !’ न जाइओ
पिचके भले हो गाल ,मगर शान बहुत है
हर ’चैट रूम’ में सभी हैं जानते मुझे
कमसिन से,नाज़नीन से, पहचान बहुत है
पहलू में मेरे आ के ज़रा बैठिए ,हुज़ूर !
घबराइए नहीं ,मेरा ईमान बहुत है
’बुर्के’ की खींच ’सेल्फ़ी’ थमाते हुए कहा
"इतना ही आप के लिए सामान बहुत है"
’व्हाट्अप’ पे सुबह-शाम ’गुटर-गूँ" को देख कर
टपकाएँ लार शेख जी ,परेशान बहुत हैं
आदत नहीं गई है ’रिटायर’ के बाद भी
’आनन’ पिटेगा तू कभी इमकान बहुत है
बेगम ने जब ’ग़ज़ल’ सुनी ,’बेलन’ उठा लिया
’आनन मियां’-’बेलन’ मे अभी जान बहुत है
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
हुस्ना = हसीना
इमकान = संभावना
"गुटर-गूं" = आप सब जानते होंगे नहीं तो किसी ’कबूतर-कबूतरी’ से पूछ लीजियेगा
हा हा हा
[सं 28-05-18]
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें