एक ग़ैर रवायती ग़ज़ल : कहने को कह रहा है-----
221---2121---1221---212कहने को कह रहा है कि वो बेकसूर है
लेकिन कहीं तो दाल में काला ज़रूर है
लाया "समाजवाद" ग़रीबो से छीन कर
बेटी -दमाद ,भाई -भतीजों पे नूर है
काली कमाई है नही, सब ’दान’ में मिला
मज़लूम का मसीहा है साहिब हुज़ूर है
ऐसा धुँआ उठा कि कहीं कुछ नहीं दिखे
वो दूध का धुला है -बताता ज़रूर है
’कुर्सी ’ दिखी उसूल सभी फ़ाख़्ता हुए
ठोकर लगा ईमान किया चूर चूर है
सत्ता का ये नशा है कि सर चढ़ के बोलता
जिसको भी देखिये वो सर-ए-पुर-ग़रूर है
ये रहनुमा है क़ौम के क़ीमत वसूलते
’आनन’ फ़रेब-ए-रहनुमा पे क्यों सबूर है ?
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ -
सबूर = सब्र करने वाला/धैर्यवान
सर-ए-पुर ग़रूर =घमंडी/अहंकारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें