एक ग़ज़ल : छुपाते ही रहे अकसर--
छुपाते ही रहे अकसर ,जुदाई के दो चश्म-ए-नम
जमाना पूछता गर ’क्या हुआ?’ तो क्या बताते हम
मज़ा ऐसे सफ़र का क्या,उठे बस मिल गई मंज़िल
न पाँवों में पड़े छाले ,न आँखों में ही अश्क-ए-ग़म
न समझे हो न समझोगे , ख़ुदा की यह इनायत है
बड़ी क़िस्मत से मिलता है ,मुहब्बत में कोई हमदम
हज़ारों सूरतें मुमकिन , हज़ारों रंग भी मुमकिन
मगर जो अक्स दिल पर है किसी से भी नहीं है कम
ख़िजाँ का है अगर मौसम ,दिल-ए-नादाँ परेशां क्यूँ
सभी मौसम बदलता है ,बदल जायेगा ये मौसम
नहीं देखा सुना होगा ,जुनून-ए-इश्क़ क्या होता
कभी ’आनन’ से मिल लेना ,समझ जाओगे तुम जानम
-आनन्द.पाठक-
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