ये आँधी ,ये तूफ़ाँ ,मुख़ालिफ़ हवाएँ
भरोसा रखें, ख़ुद में हिम्मत जगायेंकहाँ तक चलेंगे लकीरों पे कब तक
अलग राह ख़ुद की चलो हम बनाएँ
बहुत दूर तक आ गए साथ चल कर
ये मुमकिन नहीं अब कि हम लौट जाएँ
अँधेरों को हम चीर कर आ रहे हैं
अँधेरों से ,साहब ! न हम को डराएँ
अगर आप को शौक़ है रहबरी का
ज़रा आईना भी कहीं देख आएँ
अभी कारवाँ मीर ले कर है निकला
अभी से तो उस पर न उँगली उठाएँ
यहाँ आदमी की कमी तो नहीं है
चलो ’आदमीयत’ ज़रा ढूँढ लाएँ
न मन्दिर, न मस्जिद, कलीसा न ’आनन’
नया पुल मुहब्बत का फिर से बनाएँ
-आनन्द.पाठक-
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